*लोक देवता कारस देव इतिहास एवं लोक मान्यताऐं*
*बुन्देलखंड से जुड़ाव-*
कारसदेव की गाथा बुन्देलखण्ड अंचल की गुर्जर एवं अहीर जातियों के मध्य विख्यात है। यह गाथा गोठों के रूप में गायी जाती है। गाथा के गायक पशुपालक जाति के होते है जो कारसदेव के चबूतरे पर गाथा को पूरी लय एवं शैली में एक विशेष प्रकार के बाद्ययंत्र ढाक को बजाते हुए गाते है। इन थानकों पर ईटों के दो छोटे घर प्रतिकात्मक रूप से बने होते हैं। मान्यता है कि एक में कारसदेव और दूसरे में हीरामन प्रतिष्ठित है। बांस पर सफेद झंडी की ध्वजा फहरायी जाती है। प्रत्येक माह की कृष्ण चतुर्थी एवं शुक्ल चतुर्थी को गुर्जर, अहीर, धुल्ला पदधारी व्यक्ति के साथ इकट्ठे होते है जिस पर कारसदेव की सवारी आती है। इस समय कारसदेव के जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा ढाक बजाते हुए गायी जाती है। इसमें उनके द्वारा किये गए अद्भुत एवं अलौकिक साहसी कार्याे का वर्णन होता हैं।
कारस देव हर दुखी और जरूरतमंद की सहायता के लिए तत्पर रहते है। जिसको उनकी गोठ (गाथा ) के रूप में गोठिया (पुजारी भक्त ) गाते है। कारस देव किसान कौमों के लिए पशुधन की हर प्रकार की बीमारी से बचाव करने वाले बाँझ- गाय, भैस को गर्भवती बनाने का आशीर्वाद देने बाले और गाय-भैस को इच्छित बछड़ी और पाड़ी प्रदान करने बाले देवता के रूप में पूजा जाता है।
कारस-देव की पूजा पशु-रक्षा के साथ-साथ झाड़-फूंक के लिए भी की जाती है। मैकासुर की तरह ही इनका भी पूजा का स्थान ऊँचे से टीले पर बना होता है। कारस-देव हैह्य वंशी राजाओं की परम्परा के स्वीकारे गए हैं। इनकी पूजा के समय भी प्रसाद को वहीं पर समाप्त करने का विधान है। प्रसाद को घर नहीं ले जाया जाता है। इनके प्रसाद में सफ़ेद ध्वजा, नारियल आदि चढाने का चलन है। इनकी पूजा के समय इनके नाम का दरबार लगता है, जिसमें लोग अपनी समस्या को सामने रखते हैं। एक व्यक्ति जिसे गोठिया कहा जाता है उस पर कारस-देव का प्रभाव आ जाता है। वह भक्तों की समस्याओं को सुनता है तथा झाड़-फूंक के साथ उनका निदान भी करता है। इन दोनों लोक-देवताओं के बारे में एक बात खास है कि होली के अवसर पर अहीर जाति के लोग इन दोनों लोक-देवताओं के समक्ष नृत्य करते हैं।
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*गुरु महादेव*
साधू वेशधारी महादेव ने कारस देव को शिष्य बनाकर दूध पिया। शिवजी वहीं रह कर तपस्या करने लगे और बालक कारस देव उनकी सेवा करते रहे। उनको अध्यात्मिक शक्तियों से परिपूर्ण करते रहे। जब साधु वेशधारी शिवजी की वहाँ तपस्या का समय पूरा हुआ तो कारस देव ने उनसे प्रार्थना की। हे त्रिलोकीनाथ भविष्य में आपके तपस्या स्थान की पहचान बनाने के लिए इस निर्जन स्थान पर हिमालय जैसी गंगा न सही प्यास बुझाने बाली गंगा तो बहा दो। शिवजी तथास्तु कह अंतर्ध्यान हो गए।
कारिश देव गुरु के स्थान पर शिवलिग स्थापित कर उसकी पूजा करने लगे। इसीलिए आज भी पहाडों में अनवरत धारा बहती सीतल कुण्ड को कारस देव के श्रद्धालु पूजनीय स्थान मानते हैं। बड़ी श्रद्धा के साथ पवित्र कुंड में स्नान करते है। गुरु की तपस्या के स्थान पर आाज भी देव की पूजा वाला शिवलिग मौजूद है। यहां के पहाडों से ही शीतल गंगा निकलती है, जिसे शीते या सीतल कुंड कहा जाता है। जिसमें वर्षभर पानी बहता रहता है। इसका महत्व पुष्कर सरोवर की तरह है। श्रद्धालु बहुत दूर दूर से आकर इस कुंड में नहाते है। विश्वास है कि इसमें स्नान से समस्त पाप कट जाते है तथा असाध्य चर्म जैसे कोढ़ भी ठीक हो जाता है। आज भी सीतल कुण्ड में भूत-जिन्द, ऊपरी-पराई आदि आसुरी शक्तियां से प्रभावित जन के स्नान करने से सब भाग जाती है। देव के सेवक गोठिये जब इसमें स्नान करते हैं तो उनमें देव का भाव प्रगट होकर खेलने लग जाते है।
*चमत्कारों की झड़ी*
कारस देव जब जवान हुए तो अध्यात्मिक शक्तियों से युक्त महान शक्तिशाली योद्धा बन गऐ। अपने बडेे भाई सूरपाल के साथ ख्याति प्राप्त करते गये तथा तत्कालीन मेवाड़ की सीमाओं तक जनमानस में चर्चित हो गये। कारस देव चमत्कारों से जन-जन के लोकप्रिय बन गए। किसी भी बिमारी से ग्रसित इंसान और पशुधन को बीमारियों से मुक्त करते रहे। भैंसे पर सवार उनका स्वरुप दुश्मनों को यमराज का अवतार लगता था। सूरपाल की सवारी घोड़े पर और कारस देव की भैंसे पर मानी जाती है।
एक दिन जब देव अपनी माता सोढा के पास बैठे तो जहाज गांव में आने तथा गढ-राजौर छोडने का कारण जानने लगे। माता सोढा ने देव को बताने से मना किया और अपने पिताजी से बात करने को कह कर चली गई। युवा देव के मन में गढ-राजौर से जहाज आने का कारण जानने की उत्सुकता बढ गई। वह अपने पिता राजू चंदीला के पास गया और सम्पूर्ण घटनाक्रम बताने की जिद करने लगा। पिता राजू ने कहा बेटे गडे मुर्दे उखाडने से कोई फायदा नहीं उसको भूलना ही अच्छा है। लगातार जिद पर अडने पर पिता राजू चंदीला ने एलादे के द्वारा मदमस्त हाथी की सांकल पर पैर रखने से लेकर बादशाह द्वारा एलादे का डोला मांगने तथा राजौरगढ छोडने के बारे में विस्तार से बताया। पिता राजू ने कहा बेटे हमारे अनेक वीर युद्ध के कारण हमसे बिछड गये अब उस घटना को हम यादों में भी नहीं लाना चाहते।
युवा देव का मन पिता द्वारा बताये गये घटनाक्रम के बाद उद्देलित हो गया और मन ही मन सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले एवं गढ-राजौर छुडवाने वाले बादशाह से बदला लेने की ठानली। अपने बडे भाई सूरपाल को देव ने पिता द्वारा सुनाई सम्पूर्ण घटना से अवगत कराया। सूरपाल को इस घटनाक्रम का पहले से ही पता था लेकिन वह अनजान बना रहा। दोनों भाईयों ने उसी समय संकल्प लिया कि बादशाह से इसका बदला जल्दी लिया जायेगा।
*बादशाह की बेटी को जहाज डांग लाना-*
अपने गुरू महादेव के आर्शीवाद से देव में आध्यात्मिक शक्तियां तो थी ही युवा और गुर्जर वंश का प्रभाव होने के कारण निभर्यता एवं वीरता कूट-कूट कर भरी थी। देव एवं सूरपाल ने दिल्ली जाकर बादशाह के दरबार की पूरी जानकारी ली तथा किस प्रकार बदला लिया जाये इसकी योजना बनाई। जहाज आकर अपने साथियों से चर्चा कर बादशाह के दरबार से लडकी को जहाज गांव में लाने के निर्णय से अवगत कराया।
देव ने बडे भाई सूरपाल को अहम जिम्मेदारी देते हुए साथियों को लेकर दिल्ली रवाना हुए तथा बादशाह के महल में भेष बदलकर प्रवेश किया। पहरेदारों को चकमा देकर रात्रि के समय बादशाह की बेटी को उठाकर बयाना के जहाज गांव के लिए रवाना हो गये। अपने लीले घोडे पर सवार होकर कारस देव पवनवेग से चलने लगे। पीछे सूरपाल एवं देव के साथी सुरक्षा कवच देते हुए चल रहे थे। सुबह की बेला में जहाज गांव पहुचकर घोडे को लगाम दी। जैसे ही जहाज डांग में पक्षियों की कलरव के साथ बादशाह की बेटी की आंखे खोली तो स्वयं को डांग में पाया। युवा कारस देव को सामने देखकर भय हो गया और दिल्ली से डांग तक आने का कारण जाना। देव ने बादशाह की बेटी को पूरी बात बताई तथा अपनी बहन का बदला लेने के लिए जहाज डांग लाना बताया। लोक मान्यताओं के अनुसार देव ने अपने परिवार का बदला लेने के लिए बदशाह की बेटी से जहाज की डांग में पशुओं का गोबर तक सिर पर रखकर डलवाया। इस प्रकार बादशाह से बदला लेकर देव ने क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करली।
*सर्पदंश से सूरपाल को मुक्ति दिलाना-*
कुछ समय बाद भगवान महादेव के चेले कारस देव तपस्या हेतू हिमालय चले गए। उनकी अनुपस्थिति में दुर्भाग्यवश उनके बडे भाई सूरपाल को सांप ने डस लिया। ऐलादे ने विलाप किया कि अब मेरे भात भरने कौन आयेगा और बेहोश हो गई। बेहोश होकर पत्थर पर गिरी तो उनके सिर से खून बह निकला, जब होश आया तो ऐलादे के हाथ खून से रंग गए। एलादे ने जब खून से रंगे हाथ पत्थर कि शिलाओं पर पटके तो उनका रंग लाल हो गया। आज भी जहाज गाँव के मंदिर के पास हाथ के छापों बाली खून से लाल शिलाएं मौजूद है।
हिमालय में तपश्या में लीन कारस देव को जब अंर्तमन से बहन ऐलादे का विलाप सुनाई दिया तो हिमालय से वापस लौटे और अपनी अध्यात्मिक शक्ति से साँपों को ढूंढ-ढूंढकर बहार निकालने लगे। सूरपाल को साँप ने जिस क्षेत्र में काटा था उस इलाके के समस्त साँप घबरा कर इकट्ठे होने लगे और सभी सर्प बडे भाई सूरपाल को स्वयं द्वारा ना डसे जाने की दुहाई देने लगे। अंत में डसने वाला सर्प भी आ गया और भय से डसे गए भाई को जहर वापस खींचकर पुनर्जीवित करने को तैयार हो गया। लेकिन शर्त रखी कि जहाँ भी जहर को डाला जायेगा वो स्थान निर्जन हो जायेगा या फिर कम से कम दो व्यक्तियों की जान ले लेगा। कारस देव ने शर्त मान ली सर्प के जहर खींचते ही भाई सूरपाल जीवित हो उठे।
जहर के निस्तारण की बारी आई तो कारस देव ने भूमि पर जहर डालना उचित नहीं समझा इससे धरती माता का अपमान होता तथा बंजर हो जाती। कारस देव ने अपने प्रिय दोस्त को बताया कि उन्हें आज जहर का प्रसाद लेना होगा। साथ ही वरदान दिया कि जहर पीकर भी पुनर्जन्म पाएंगे जो कि देवता के रूप में अमर हो जायेंगें। उन पर अगले जन्म में सांप के जहर का कोई असर नहीं होगा तथा उनमें किसी भी सांप के काटे इंसान या जानवर को पुनर्जीवित करने की क्षमता होगी।
*हीरामन को पूजवाने का वरदान-*
दोस्त हीरामन जो कि अहीर (यादव) जाति के थे उसने खुशी-खुशी सर्प द्वारा छोडा गया जहर पी लिया और उनके प्राण पखेरू उड़ गए। कारिस देव के वरदान स्वरूप आज भी कारिस देव के साथ हीरामन बाबा की पूर्वी राजस्थान और पश्चिमी मध्यप्रदेश के इलाके में दोनों लोक देवताओं की सभी किसान जातियों में अत्यधिक मान्यता है। कहा जाता है किसी भी प्रकार के सर्प का काटा हुआ जानवर या मनुष्य अगर इन लोकदेवताओं के मंदिर तक पहुंचाया जाये तो उसकी मृत्यु नहीं होती। आज भी किसी के भी सांप द्वारा डसे जाने पर सीधा मंदिर स्थान पर लाया जाता है जहां देवताओं के थानकों पर कारिस देव या हीरामन के प्रभाव से नीम की डाली का झाडा एवं 108 बिन ब्याई गायों की पूंछ से बनी रस्सी जिसे ..... कहा जाता है उससे सर्प दंश का व्यक्ति स्वस्थ्य होकर थानक से लौटता है।
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*जहाज डांग में पहुंचना-*
राजू चंदीला जहाज गांव पहंुचे जो चारों ओर से पर्वत श्रंखलाओं से घिरा एवं हरियाली से आच्छित क्षेत्र था। यह क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से हर किसी की पहुंच से बहार था। सामरिक दृष्टि से भी सुरक्षित था। यहां मान्या लुहार का शासन था। मान्या लुहार के उस समय जहाज गांव में 989 भट्टियां चलती थी जिनमें तलवार, भाले, बरछी आदि हथियार बनाये जाते थे जिनकी सप्लाई विभिन्न रियासतों के राजाओं के यहां होती थी।
पांडवों के अज्ञातवास की तरह राजू चंदीला ने मान्या लुहार के अपनी प्रतिभा के बल पर नौकरी कर ली। जिसके एक हुकुम पर सैकडों लोग एकत्रित हो जाते उसी राजू चंदीला को परिवार के साथ जहाज डांग में बसेरा करना पड़ा। मान्या लुहार की भट्टियां में राजू एवं गौरे को कोयला झौंकने का काम मिला। मान्यता है कि यह महाभारत के अज्ञातवास की तरह का समय था जिसमें राजू चंदीला ने अपनी पहचान छुपाकर मान्या लुहार के यहां नौकरी की। मान्या लुहार बलशाली और बात का धनी योद्धा था उसको जब राजू चंदीला के घटनाक्रम की जानकारी मिली तो उसने राजू चंदीला को अपने सीने के लगा लिया और दोस्त की तरह रखा। मान्या लुहार ने राजू को विश्वास दिलाया कि दुनिया की कोई शक्ति उसके राज्य में राजू चंदीला के परिवार को हानि नहीं पहुचायेगा। जब तक मान्या लुहार जीवित है किसी भी सुल्तान की निगाह जहाज की डांग तक नहीं आयेगी। इधर सोढ़ा और सरणी जहाज में आटा पीसने का कार्य करने लगी। इस प्रकार परिवार का भरण पोषण होन लगा, कुमारी एलादे, कंुवर सूरपाल जहाज में बच्चों के साथ खेलते थे। कुमारी सुन्दर का विवाह गढ-राजौर छोडने से पहले ही गांव कांकरखेड़ा के बैसला गोत्र के गुर्जरों के करने का वचन दे आये थे।
*कारस देव का जन्म-*
जहाज आने तक राजू चंदीला के कुमारी एलादे पुत्री ही थी कोई पुत्र नहीं था। कुमारी एलादे अपने पिता के राज्य को छीन जाने से व्यथित रहती थी। जहाज गांव में वर्तमान सीतल कुण्ड के पास एक झरना था उसमें कुमारी एलादे अपनी सखियों के साथ नियमित स्नान करने जाती थी, स्नान के बाद भगवान शंकर के लिए एक मिट्टी का शिवलिंग बनाये तथा उसपर जल चढाकर आये। जल चढाने से मिट्टी का शिवलिंग रोजाना मिट जाये दुसरे दिवस जब एलादे जाये तो पुनः नहाने के बाद मिट्टी का शिवलिंग बनाये तथा जल अर्पण कर वापिस अपने घर आ जाये। यह कार्य अनवरत जारी रहा लेकिन एलादे के भाई का जन्म नहीं हुआ।
कुछ समय बाद कुमारी एलादे ने शीतल कुण्ड पर स्नान कर समाधि लगा ली तथा भगवान शिव की आराधना में लीन रहने लगी, घर जाना भी बन्द कर दिया। लगभग 12 बरस की अनवरत तपस्या की शरीर पर दीमक लग गई केवल हवा का अहार से ही जीवित रही। भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र से जब कुमारी एलादे के तप को देखा तो वे सीतलकुण्ड आये तथा बेटी-बेटी आवाज लगाई। एलादे की आंख खुली तो भगवान भोलेनाथ ने घोर तपस्या का कारण जाना। एलादे ने भगवान के चरणों में ढोक लगाई और वरदान मांगा ’’भुजा दाहिनी बीरन होवे, बैरी जिसके नाम सुनकर रोंये, जो दुश्मन से बदला ले आये, मांझेहार तुर्क की बेटी को लाकर बताये।’’
भगवान शिव ने समझाया बेटी तेरी मॉ. सोड़ा की उम्र 80 हो गई कैसे प्रसव दर्द सहेगी। जब एलादे नहीं मानी तो भगवान शिव ने आशीर्वाद दिया मलमास के बाद कार्तिक अमावस्या, पुष्प नक्षत्र, मीन संक्रांति को जब गांव की सभी सखियां सीतल कुण्ड नहाने आये ंतब आपकी माता को लेकर आना आपको भाई गैंदा के फूल में मिल जायेगा।
एलादे ने कार्तिक अमावस्या को ऐसा ही किया जहाज से लगभग एक हजार महिलाओं के साथ अपनी माता सोढा को भी स्नान कराने सीतल कुण्ड लकर आई। सोढ़ा को यहां गैंदा का फूल पानी में बहते हुए झोली में आ गया। उसे लेकर जहाज में अपने घर वर्तमान जन्म-मंडईया में ऐलादी एवं मॉ सोडा लेकर आती हैं तो एलादे उस फूल को अपनी मॉ से आंचल से लगाने को कहती है। रात्रि 12 बजे सोढा के आंचल से दूघ आने लग जाता है यहां कारस देव गैंदा के फूल से प्रगट होते हैं।
देव का जन्म होते ही जहाज में 12 साल से सुखा पड़ा मान्या लुहार के धर्म के कुए में स्वतः ही पानी आ जाता है। सुखे पेड़ हरे हो जाते है। मान्या लुहार के बागों में चन्दन के पेड़ उग आते हैं। मान्या लुहार के किले के कंगूरे ढह जाते हैं और पर्वत में समा जाते हैं। मान्या लुहार की 989 भट्टियों में आग स्वतः ही जल उठती है। फूटे नगाडों से बिना बजाये आवाज आने लगती है। मान्या लुहार की घुडसाल में बंधे घोडे आवाज करने लगते हैं हाथी चिंगाड़ मारने लग गए। मान्या लुहार अपने सेवकों से पूंछता है आज यह क्या हो रहा है तो उसे बताया जाता है राजू एवं सोढ़ा के घर बच्चे का जन्म हुआ है। जहाज में उत्सव का माहौल हो जाता है महिलाऐं उत्सव मनाती हैं। राजूू और गौरे को बधाई देने वालों का तांता लग जाता है।
मान्या लुहार के कहने पर काशी पढाई किए हुए पंण्डित को बच्चे के नामकरण संस्कार के लिए बुलाया जाता है। जैसे ही जन्म समय के अनुसार पण्डित को बच्चे की राशि एवं भविष्य के बारे बताने को कहा जाता है। पण्डित की आंखों से अश्रु की धारा बहने लगती है। पण्डित कहता है ’’ऐसो जन्म हुआ देव को जो दुनियां को दुख दूर करेगौ। दुश्मन को ढंुढ-ढुंढ मारेगौ। राजू-गौरे को बदला लेकर दुनियां में अपनों परचम पहरायेगौ। आने वाली पीढियों में जन्म-जन्म तक पूजो जावेगौ। मांगेहार में झण्डा फहराकर दुश्मन कु धूल चटावेगौ।’’
पण्डित ने राजू चंदीला के पुत्र का नामकरण देव के नाम से किया। श्याम रंग होने के कारण आगे चलकर देव ही कारस देव नाम से प्रसिद्धि पाने लगे। देव बचपन से ही बलशाली तथा भगवान कृष्ण की भांति साथ के बच्चों में सबसे शरारती थे। माता सोढा एवं बहन एलादे के धार्मिक संस्कारों, प्रार्थनाओं एवं भगवान भोलेनाथ के आशीर्वाद से कारस देव का तेजी से विकास होता गया।
जब देव पांच बर्ष के हो गए तब वो जंगल में अकेले खेल रहे थे। वहाँ देखा कि एक साधु समाधी लगाये हुए तपस्या में लीन थे। लोक मान्यता है कि वह साधू स्वयं शंकर भगवान् थे। संस्कारी परिवार से संस्कारों से युक्त बालक देव श्रद्धा से उनके पास बैठे रहे। जब साधू की समाधी खुली तो साधू से देव ने प्रणाम किया और पूछा बाबा मैं आपकी क्या सेवा करूँ। साधु के वेशधारी शंकर भगवान् ने बालक को कमंडल देकर कहा कि हे बालक जा और इस कमंडल में बिन ब्याई बकरी का दूध लेकर आ। बालक श्रद्धा पूर्वक कमंडल लेकर जंगल में बकरी चराने बाले ग्वाले के पास पहुंचा और बिन ब्याई बकरी का थोडा दूध कमंडल में देने का अनुरोध किया। ग्वाला ने कहा हे बालक बिन ब्याई बकरी कभी दूध नहीं देती। जो अभी ब्याई ही नहीं है वो दूध कैसे देगी। बालक देव जिद पर अड गया तो ग्वाले ने कहा जा वो रही बिन ब्याई बकरी अगर तुझे दूध दे दे तो तू निकाल ले।
बालक ने कमंडल लेकर जैसे ही उस बिन ब्याई बकरी के नीचे रखा उसके थनों से अपने आप दूध की धार बहने लगी। बालक कारस देव समझ गए ये कोई चमत्कारी साधू है। आज भी जहाज गांव में बैंसला गोत्र के गोठिया परिवार में ऐसी मान्यता है कि महादेव के वरदान के फलस्वरूप एकाध बिन ब्याई बकरी भी प्रतिवर्ष दूध देती है। जिसे ईन्दल या अलहद बकरी भी कहा जाता है। जब कारस देव दूध लेकर लौटे तो साधू ने कहा हे संस्कारी, आज्ञाकारी और श्रद्धावान बालक तेरा गुरु कौन है। बालक ने बताया अभी तक मेरा कोई गुरु नहीं बना। साधू ने कहा अरे बालक जिसका कोई गुरु नहीं हो उसकी सेवा मैं ग्रहण नहीं कर सकता। इसलिए पहले अपना गुरु बनाओ तब बालक देव ने चतुराई पूर्वक कहा कि हे त्रिलोकीनाथ आप से अच्छा गुरु कौन हो सकता है। दूध पीने से पहले मुझे शिष्य बना लो और दूध भी पी लो।
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#लोक_देवता_कारस_देव इतिहास एवं लोक मान्यताऐं
लेखक- हरिओमसिंह गुर्जर
दिल्ली सल्तनत पर जब खिलजी वंश के अल्लाउद्दीन खिलजी (1296 से 1316) का शासन था। उसी कालखंड में वर्तमान अलवर जिले के गढ़-राजौर नामक छोटे से एक राज्य पर गुर्जर प्रतिहार वंश के राजू चंदीला नामक बहादुर योद्धा की जागीर थी। चंदीला अपने शासकों को कर संग्रह करने के साथ क्षेत्र में शांति बनाये रखने का काम करता था। जरूरत पडने पर सैनिकों की टूकडी भी भेजता था। इस छोटे से राज्य में सभी जातियों के लोग रहते थे सभी खुश थे।
राजू चंदीला की पत्नी रानी सोढ़ा बहुत ही धार्मिक विचारों वाली अत्यंत सुन्दर महिला थी। राजू चंदीला के छोटे भाई थे गौरे, इनकी पत्नि का नाम था सरणी जो कद-काठी में अपने समय की सबसे बलिष्ठ महिलाओं में एक थी।
रानी सोडा के गर्भ से पहली संतान पुत्री हुई, ज्योतिषियों ने उस कन्या का नामकरण एलादे के नाम से किया। ज्योतिषियों ने राजू को उसके भविष्य के बारे में बताया कि यह लड़की बड़ी होकर आपके कुल का नाम रोशन करेगी। एलादे सुडौल एवं गौरवर्ण की सुन्दर कन्या थी। जैसे-जैसे उम्र बढने लगी गढ राजौर के पहाड़ पर देवी मंदिर में तपस्या करने लगी। जिससे उसमे अध्यात्मिक बल बढ़ने लगा। गौरे एवं सरणी के दो संतान हुई बड़ा बेटा हुआ जिसका नामकरण सूरपाल किया गया। ज्योतियों ने सूरपाल के बारे में बताया कि यह बल एवं बुद्धि में सबसे तेज रहेगा। सूरपाल के बाद कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम सुन्दर रखा गया। इस प्रकार राजू और सोढ़ा के कन्या एलादे, गौरे एवं सरणी के कुंवर सूरपाल एवं कन्या सुन्दर का जन्म गढ-राजौर में निवास करते समय ही हुआ। यहां भौगोलिक वातावरण के अनुरूप इनके पास गाय पालन का बड़ा कार्य था। उस समय गायों की संख्या के आधार पर ही उसके रूतबे एवं शक्तिशाली होने का आकलंन किया जाता था। लम्पाखोय नामक स्थान पर इनके पशुओं को रखा जाता था।
*दिल्ली बादशाह के हाथी को रोकना-*
कुमारी एलादे की उम्र लगभग 12 वर्ष की थी अपनी सखियों के साथ देवी मन्दिर पर पूजा करके आ रही थी तो देखा एक मदमस्त हाथी जिसके पैरों में सांकल बंधी हुई है तेजी से आ रहा है। यह हाथी दिल्ली के बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी का था जो सांकल तोड़कर भाग छूटा था। हाथी के पीछे-पीछे सैनिक और हाथी को सँभालने वाले दौड़ते हुए चल रहे थे। एक बडी सी सांकल जमीन पर रगड़ती जा रही थी। लेकिन किसी भी सैनिक की हिम्मत नहीं थी कि उस हाथी की सांकल पकड़ कर रोके। वह हाथी खेत-खलिहान, जानवर, इंसान सभी को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा था। एलादे के सिर पर दुध का घड़ा रखा जा जब उसने यह दृश्य देखा तो उसने देवी मॉं का सुमरन करते हुए दांया पैर का अंगूठा मदमस्त हाथी की सांकल पर रख दिया इससे हाथी रूक गया।
इस घटना को देखकर बादशाह के सैनिकों को बहुत आश्चर्य हुआ और शर्मिंदगी भी हुई। जिस हाथी को वे सब मिलकर भी नहीं रोक पा रहे थे उसे एक कन्या ने पैर रखकर ही रोक दिया था। बादशाह के सैनिकों ने एलादे से उसका परिचय पूछा। एलादे ने जबाब दिया तुम्हारा हाथी तुम्हारी पकड़ में आ गया, अपना हाथी वापस ले जाओ। मेरे पिता राजू चंदीला को अगर पता लग गया कि तुम लोगों ने हाथी से जानमाल का इतना नुकसान पहुँचाया है तो तुम्हे जेल में डाल देंगे। सैनिकों ने दिल्ली लौट कर सारा वृतांत सेनापति के माध्यम से बादशाह खिलजी तक पहुंचाया। सैनिकों ने घटना का वर्णन करते हुए कहा कि उस आकर्षक कन्या के एक पैर से ही हाथी रूक गया। यह कन्या शूरवीरों से भी शक्तिशाली और अत्यंत सुन्दरी है तथा गढ-राजौर के राजू चंदीला की पुत्री एलादे है।
*एलादे को हरम में भेजने का फरमान-*
बादशाह ने सैनिकों से वीर कन्या की ख्याति को सुनकर उसे अपने हरम में लाने की इच्छा व्यक्त की। बादशाह के पुत्र ने ऐसी वीरांगना से निकाह करने की प्रबल इच्छा जताई। बादशाह ने अपने पुत्र से निकाह करने के लिए फरमाना एवं सैनिकों का जत्था भेजकर एलादे को दिल्ली दरबार में प्रस्तुत करने का संदेश गढ-राजौर तक पहुंचाया। फरवाना ने दिल्ली सल्तनत की इच्छा से अवगत कराते हुए राज की सलामति के लिए राजा राजू चंदीला से एलादे को दिल्ली भिजवाने का प्रलोभन दिया, नहीं भिजवाने पर जबरदस्ती ले जाने और युद्ध के लिए तैयार रहने का फरमान सुनाया। सैनिकों की उपस्थिति देखकर राजू और गौरे चंदीला ने अपने विश्वास पात्र परिजनों को एकत्रित किया तथा सम्पूर्ण वृतांत से अवगत कराया।
*बादशाह की सेना से लड़ाई-*
गढ़-राजौर के वीर योद्धाओं को अपने राजा की बेटी के प्रति बादशाह की इस सोच ने क्रोध से लाल कर दिया। अपने पास उपस्थित हथियारों एवं बाहुबल से ही दिल्ली सल्तनत से आई सैनिकों की टूकडी से आमना-सामना करने लगे। गढ़ राजौर में यह बात जंगल में आग की भांति फैल गई और सभी लोग अपने पास उपलब्ध हथियारों के साथ राजू के किले में पहुंच गये। सैनिकों की टूकडी के साथ तलवारों से तलवारें खनकने लगी, खून की धारा बहने लगी, गुर्जर वीरों केे आगे खिलजी की सैनिक टूकडी धराशायी होती गई। एक-एक सैनिक को अपनी जान पर बन आई जिस गढ-राजौर को सैनिक हल्के में ले रहे थे उसके वीर योद्धाओं के आगे अधिकतर सैनिक मौके पर खेत हो गये जो बचे वे जान की भीख मांगकर भाग गये। फरमाना लेकर आने वाला चुनौती देते हुए तीन दिवस का समय देकर दिल्ली रवाना हो गया। उसने सारे घटनाक्रम से बादशाह के सेनापति को अवगत कराया।
इधर राजू चंदीला ने इस विपत्ति काल में अपने सगे-संबन्धियों एवं प्रमुख संबन्धियों को एकत्रित कर सम्पूर्ण जानकारी दी। किसी ने युद्ध को चुनने का तो किसी ने राज्यहित में बचाव का रास्ता निकालने की सलाह दी। राजू चंदीला ने परिजनों को बताया कि दिल्ली सल्तनत के इस समय हौंसले बुलन्द हैं। खिलजी जिलासा, चंदेरी और देवगिरी की विजय से उत्साहित है और राजपुताना के बडे शासक भी उसको टक्कर नहीं दे पा रहे है। हमारे पास ना तो सेना है और ना ही इतने हथियार की दिल्ली सल्तनत से युद्ध में सामना कर सकें। हम अपनी रक्षा के लिए बेटी को हरम में तो भेज सकते नहीं। सब मर मिटेंगे लेकिन तुर्क को बेटी नहीं ब्यायेंगे।
*गढ-राजौर छोडना-*
परिवार जनों ने भी सोचा कि युद्ध में सब कुछ चला जायेगा और हमारी इज्जत भी नहीं रहेगी। सबने एकराय होकर गढ़-राजौर छोड़ने का निर्णय लिया। लेकिन ऐसी जगह शरण ली जाये जहां दिल्ली सल्तनत से नहीं डरने वाला शासक हो या सुरक्षित भौगौलिक स्थितियां हों। फलता-फूलता परिवार, क्षेत्र में मान-सम्मान, खुशहाली, किले-महल सब छोडकर जाना हर किसी के बस की बात नहीं होती है। लेकिन इज्जत और समाज में मान सम्मान के लिए वर्षों से संरक्षित राज्य राजू चंदीला को सबकुछ छोडकर जाना पड़ा। अपने सगे-संबन्धियों, परिजनों के साथ राजू चंदीला ने भगवान शिव के मन्दिर में अंतिम दर्शन कर राज्य छोडने पर क्षमा मांगते हुए बदला लेने की शक्ति प्रदान करने का आशीर्वाद लिया। उधर कुमारी एलादे मन ही मन पिता के राज्य छोडने के लिए स्वंय को उत्तरदायी मानकर अश्रुधारा बहाते हुए देवी मॉ के मन्दिर पहुंची तथा अंतिम दर्शन कर हमेशा आशीर्वाद बनाये रखने की मनौती मांगने के उपरान्त अपनी सखियों के साथ घर-बार सब छोड पिता के साथ सामिल हो गई। दिल्ली सल्तनत ने अपना अपमान समझा और अतिरक्ति सैनिकों का जत्था गढ-राजौर के लिए रवाना किया तब तक राजू चंदीला अपने साथियों के साथ गढ-राजौर के किले को खाली कर चुका था। यह भाद्रपद का महिना था।
गढ़ राजौर से देर सांय अपने रथों में आवश्यक सामान रखकर राजू चंदीला, भाई गौरे, रानी सोढ़ा व सरणी, कन्या एलादे, कुंवर सूरपाल और कन्या सुन्दर, सगे संबन्धियों के साथ चल दिये पहला पडाव दौसा जिले के बांदीकुई के ’’डगडगा गांव’’ में किया यहां बचाव की उम्मीद नही थी। दुसरे दिन महवा तहसील के गांव ’’पाटौली-करणपुर’’ पहाड़ की तलहटी में अपने डेरे डाले। उसके बाद वैर तहसील के गांव निठार में बसेरा किया जहां से बल्लभगढ़ होते हुए बूढी जहाज गांव पहुंचे। जहां-जहां होकर राजू चन्दीला का कारवां गुजरा वहां-वहां अपने परिजनों में से किसी को छोडकर पीछे से दिल्ली सल्तनत से किसी तरह की चढाई या सैनिकों के आगमन की सूचना देने की जिम्मेदारी देते हुए आगे बढते गये। जहां-जहां भी ये लोग रूके वहां आज भी चंदीला गोत्र के गुर्जरों के गांव है और स्वयं को कारस देव का वंशज मानकर आज भी ये गांव नवजात शिुशुओं के मुण्डन संस्कार पीढी दर पीढी कारसदेव मन्दिर जहाज तहसील वैर जिला भरतपुर में ही करने का वचन निभाते आ रहे है। नव विवाहित दम्पत्तियों को भी सबसे पहले जहाज कारसदेव मन्दिर जाकर ढोक लगानी पडती है। डगडगा गांव में कुछ परिजन आगे चलने में डगडगाने लगे वे रूक गये थे इसलिए इस गांव का नाम डगडगा नाम पड़ा। वर्तमान पाटोली पहाड़ की तलहटी में रूके बडे भाई करणसिंह ने करणपुर एवं छोटेभाई खानसिंह ने खानपुर (पाटोली गांव का राजस्व रिकार्ड में पूर्व में यही नाम) गांव बसाया। निठार गांव जहाज के नजदीक होने के कारण यहां अपने किसी भी परिजन को नहीं बसाया गया। यहां आज भी पहाडी के ऊपर कारस देव का मन्दिर है। निठार गांव में आज मीणा जाति की बाहुल्यता है तथा सभी लोग आज भी कारस देव की नियमित पूजा करते है।
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10 September 2020